कर्ण महत्वाकांक्षी है। यद्यपि क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी वह सूत-पूत के नाम से संसार में विख्यात है, तथापि उसके मन में संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने की उत्कट अभिलाषा वर्तमान है।
वह कुशाग्रबुद्धि का प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति है। दिनकर ने महाभारतकालीन वातावरण का वर्णन करते हुए यह दिखलाया है कि उस समय वर्ण-व्यवस्था पर विशेष बल दिया जाता था।
शुद्रों को विद्याध्ययन का अधिकार नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप किसी आचार्य ने उसे शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया।
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कर्ण विद्याध्यन के लिए परशुराम की कुटी गए
कर्ण महेन्द्रगिरि पर्वत पर चला गया, जहाँ परशुराम की कुटी थी।
परशुराम को देखकर ही उसके मन में श्रद्धा का भाव उदय हुआ कुटी के दृश्य जो उसे मनोहर लगे, एक ओर तप की साधना थी, दूसरी ओर धनुषवाण टॅगे थे।
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, हाथ में कठिन कुठार और श्राप देने में महाक्रोधी के रूप में परशुराम विख्यात थे!
परशुराम युद्ध में काल के समान भयानक तथा तपस्या में सूर्य के समान तेजस्वी थे।
कर्ण ने भक्ति भाव से उनकी बड़ी सेवा की और परशुराम ने प्रसन्न होकर उसे धनुर्विद्या की पूरी शिक्षा दी। कर्ण को ब्रह्मास्त्र भी मिल गया।
परशुराम ने नियम बना लिया था कि ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी दूसरी जाति को शिष्य नहीं बना सकते। कर्ण को उन्होंने ब्राह्मण कुमार ही मानकर अपना शिष्य बनाना स्वीकार किया था। कर्ण ने उस विश्वास को बना रहने दिया।
सहन शक्ति के कारन पकरे गए कर्ण
एक दिन परशुराम थक कर कर्ण की जाँघ पर अपना मस्तक रखकर एक वृक्ष के नीचे सो गये। माघ का महीना था। पेड़ के पत्तों से सूर्य की किरणें छन-छन कर मुनि के शरीर पर आ रही थी और उनकी थकावट मिटा रही थी।
कर्ण आज्ञाकारी तथा श्रद्धालु शिष्य था। वह गुरु की सेवा करते समय आत्म-विभोर हो जाता था।
वह इसके लिए अत्यन्त सचेष्ट था कि गुरु के शरीर पर चीटियाँ नहीं चढ़ सकें, पत्ते खरक कर नहीं गिरें, ताकि गुरु की कच्ची नींद उचट न जाय।
कर्ण मन-ही-मन सोचता है कि ‘परशुराम कितना स्नेह करते हैं उससे’। स्वयं रूखा-सूखा खाते हैं, किन्तु मुझे पुष्टिकर भोग खिलाते हैं।
उनकी इच्छा है कि मेरी मांस पेशियाँ पत्थर जैसी हों, भुजाएँ लोहे सी हों और नश-नश में आग की लहर फैल जाय।’
कर्ण जब प्रेम-पूर्वक आशीर्वाद पाता है तो उसका हृदय पुलकित हो जाता है, किन्तु जब ब्राह्मण कुमार का सम्बोधन पाता है तो उसका मन काँप उठता है, मन धिक्कार उठता है और हृदय को ग्लानि होती है।
कर्ण से परशुराम को भी बड़ी-बड़ी आशाएँ है
जियो- जियो ब्राह्मण कुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे, एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे,
निश्चय तुम ब्राह्मण कुमार हो, कवच और कुण्डल धारी तप कर सकते माता पिता और किसके इतने भारी।
कर्ण जब अपनी जाँघ पर गुरू का मस्तक लेकर चिन्तन में लीन, अचल बैठा हुआ था कि तभी एक विषकीट आसन के नीचे आ बैठा और तीक्ष्ण दातों से कर्ण की जंघा को कुतरने लगा। कर्ण विकल हो उठा।
वह नहीं चाहता था कि गुरू की कच्ची नींद उचट जाय, किन्तु उसके सामने समस्या थी कि वह बिना पैर हिलाये कीड़े को बाहर निकाले भी कैसे?
गुरु के प्रति उसकी अपार श्रद्धा थी इसलिए उसने निश्चय किया कि कीट उसे काट भले ही खाए, वह गुरु को कच्ची नीद में नहीं जगा सकता।
रक्त की धारा बह चली और गर्म लहू की धारा से जब परशुराम का स्पर्श हुआ तो वे जग गये। परशुराम कर्ण से बोले कि तूने यह कैसी मूर्खता की?
‘ कर्ण ने लज्जाकर उत्तर दिया— ‘गुरुवर, आपकी कृपा से मुझे अधिक पीड़ा नहीं है। मैंने सोचा कि मेरे हिलने-डूलने से आपकी नींद उचट जायी, लेकिन यह कीट तो भीतर धँसता ही गया।
परशुराम ने कर्ण को श्राप क्यों दिया ?
परशुराम अनायास गम्भीर हो गये और दाँत पीसते हुए आँख तरेरकर बोले-
‘कौन छली है तू?’ ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र वली है तू?
परशुराम को विश्वास था कि ब्राह्मण इतने कष्ट-सहिष्णु नहीं हो सकते। उन्होंने बतलाया कि इस प्रकार की वेदना और चुभन केवल क्षत्रिय ही सह सकता है।
इसलिए वे गरजकर बोले तू अवश्य क्षत्रिय है पापी बता, न तो फल पायेगा। परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।
कर्ण थर-थर काँपने लगा उसका मुख विलीन हो गया और-
‘क्षमा क्षमा हे देव दयामय’ कहता हुआ वह परशुराम के चरणों में गिर गया उसने अपनी जाति बतला दी
सूत पुत्र मै शुद्र कर्ण हूँ करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर देव आपका अनुचर अन्तर्वासी हूँ।
वह कहता है— मेरी बलवती इच्छा थी कि ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर मदान्ध अर्जुन के मस्तक का खण्डन करूँ। संसार में आजतक दानी, वृती और बली के रूप में मै सम्मानित रहा।
अब छली की संज्ञा लेकर संसार को कैसे मुख दिखलाऊंगा। इसलिए, हे गुरूवर! आप मुझे क्षमा कर दें। किन्तु मेरी यह तृष्णा मरने पर भी मुझे सताती रहेगी।
मैं बड़ी शान्ति के साथ श्रीचरणों में प्राण विसर्जन कर दूँगा, किन्तु परशुराम का शिष्य कर्ण जीवन-दान नहीं माँग सकता।
यह कहकर कर्ण गुरु के चरणों में लिपट गया और परशुराम भी विचलित हो उठे। उनकी आँखों से अश्रु की बून्दे गिरने लगी।
अत्यन्त दुःखी शब्दों में वे बोले- हाय कर्ण तू ही अर्जुन का प्रतिद्वन्दी है? कौरवों का सच्चा सखा क्या तू ही है? अर्जुन के प्राणों का ग्राहक कर्ण क्या तू ही है?
अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्दों को मन में क्यों सीपी सा धरता था।
देखे अगनित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आजतक कभी नहीं मैंने पाया।
कर्ण की बातें सुन नर्म हुए परशुराम
परशुराम ने कर्ण से आगे कहा कि वस्तुतः तूने अपनी पवित्रता के बल से मुझे जीत लिया था। मुझे क्या पता था- कोई छलपूर्वक मुझे लूटने आया है?
जैसा स्नेह मैंने तुझे दिया वैसा प्रेम-पात्र मेरा आजतक कोई नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ भी था, अपना सब कुछ तुम्हें सौंप चुका हूँ।
पापी तू मेरे लिए कम-से-कम अब भी तो बोल कि सूत-पुत्र नहीं विप्र वंस का बालक है।
हाय! सूत-वंश में जन्म लेकर सूर्य-सा तेज तूने कैसे पाया? तुम्हें कवच और कुण्डल कहाँ से मिले? तुम्हें मैंने आजतक पुत्र-सा पाला। अब कठोर होकर तुम्हारा प्राण कैसे हरण करूँ? मैं समझ नहीं पाता कि अपने क्रोध की इस ज्वाला को उतारूँ कहाँ ?
कर्ण परशुराम के पैरों में लिपटा है और बड़े ही करूण स्वर में उसने कहा ‘गुरूवर! आपकी जिन आँखों से नीर बहे है, उन्हीं आँखों से चिनगारियाँ बरसाकर मुझे भस्म कर दीजिए। मैं भी छल के पाप से मुक्त हो जाऊंगा।
परशुराम ने विचलित होकर कहा ‘कर्ण तू मर्मभेदी वाक्यों से मेरे हृदय को मत बेधा तुझे क्या पता है कि मैं किस असमंजस में पड़ा हूँ। लेकिन तूने छल किया है इसकी सजा तुझे मिलनी ही चाहिए।
ब्रह्माश्त्र का ज्ञान भूल जाने का दिया श्राप
मेरा क्रोध कभी निष्फल नहीं हो सकता। चूँकि मैने तुम्हे पुत्रवत प्यार किया है, इसलिए प्राण-दान देता हूँ।
किन्तु जा, तुझे जो ब्रह्मास्त्र सिखलाया है आवश्यकता पड़ने पर तू उसे भूल जायगा।
‘कर्ण व्याकुल होकर बोला- हाय क्या यह किया गुरूवर, दिया शाप अत्यन्त निरादर, लिया नहीं जीवन क्यों हर ?
लेकिन परशुराम ने कहा- ‘कर्ण, मेरा प्रण अटल है। इस महेन्द्र गिरि पर तूने मेरा सब कुछ ले लिया, एक ब्रह्मास्त्र न होने से एक वीर का क्या बन बिगड़ सकता है। तुम्हारे पास तो पुरुषार्थ है, कवच और कुण्डल है, उनके रहते भी भला तुम निंदित हो सकते हो।
निर्मल हो दिया वरदान
जाओ वत्स, अपने मन को कुछ कड़ा करो। मै एकान्त कुंज में बैठकर मन को स्वस्थ करने दो क्योंकि मुझे भय है, तुम्हे निराश देखकर मेरी छाती फट न जाय। कहीं पिघल कर मैं अभिषाप को वापस न ले लूं।
जाओ, मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम संसार में महान् बने रहोगे और भारतीय इतिहास में तुम्हारे यश का सर्वदा गुणगान होगा। इतना कहकर परशुराम ने कर्ण की ओर से अपना मुँह फेर लिया।
बेचारे कर्ण के सपने बिखर गये निराश होकर मन्द गति से कर्ण महेन्द्रगिरि पर्वत से नीचे उतरने लगा। ऐसा प्रतीत होता था जैसे पहाड़ से पत्थर टूट चुका हो अथवा बादलों में मन्द गति से चाँद बढ़ रहा हो।