कौरवों और पाण्डवों के शस्त्रास्त्र के कौशल-प्रदर्शन में अर्जुन के शस्त्र कौशल से समस्त सभा स्तब्ध है। तभी कर्ण प्रकट होकर अर्जुन को द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारता है। कृपाचार्य जाति और वंश की चर्चा चलाकर अर्जुन को द्वन्द्व युद्ध से बचा लेते हैं। इसके पश्चात् संध्या हो जाती है। सभी अपने-अपने घर लौट जाते हैं। कुन्ती भी यह दृश्य देखती है। कुन्ती के हृदय में मातृत्व की भावना उबल पड़ती है, पर दूसरी ओर लोक-लाज के कारण वह अपनी वेदना को हृदय में दबाये ही रह जाती है।
जातिगत कारणों से मिलता है श्राप
कर्ण परशुराम के पास युद्ध-विद्या सीखने पहुँचता है। वहाँ उसने परशुराम से समस्त विद्याएँ सीख ली। और जब कर्ण की जाति का भेद खुलता है तो परशुराम ने क्रोधित होकर कर्ण को शाप दिया कि वह उनसे प्राप्त समस्त विद्याएँ भूल जायगा।
कृष्ण रहस्य कर्ण को बताते है
तेरह वर्षों तक बनबास के पश्चात पाण्डव इन्द्रपस्थ में वापस आये। भगवान श्रीकृष्ण कौरवो और पाण्डवों के बीच सन्धि कराने को हस्तिनापुर गए। वहाँ दुर्योधन ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। क्रोधित होकर भगवान ने अपना विराट रूप प्रकट किया। विराट रूप समेटकर जब श्रीकृष्ण वापस जाने लगे तो उन्होंने कर्ण को भी रथ पर बैठा लिया। श्रीकृष्ण उसे राजनीति एवं युद्ध रोकने की बातें कहने लगे। उन्होंने कर्ण को राज्याभिषेक का प्रलोभन दिया और यह भी बताया की वह कुन्ती-पुत्र है।
दानवीरता की परीक्षा
दानवीर कर्ण की दानशीलता की परीक्षा लेने के उद्देश्य से देवेन्द्र ब्राह्मण वेश मे गंगातट पर पहुॅचे। नियमानुसार ढलते हुए सूर्य की पूजा-उपासना समाप्त कर कर्ण ने उन्हें (सूर्य को) नमस्कार किया और ब्राह्मण देवता से मनोवांछित वस्तु माँगने का सादर निवेदन किया। सुरपति ने बड़ी कुटिलता पूर्वक कर्ण से उनके कवच एवं कुण्डल की याचना की। उस कवच और कुण्डल की, जो उसे जन्म से शरीर के साथ ही प्राप्त था। कर्ण के लिए कुछ भी अदेय न था। उसने सहर्ष कवच और कुण्डल अपने शरीर से विलग कर या यो कहें कि तलवार से छील कर देवेन्द्र को अर्पित करते हुए उनकी इच्छा पूरी की।
अंततः युधारम्भ होता है
महाभारत की पूर्व तैयारियाँ समाप्त हो चुकी है। युद्धारम्भ होने में मात्र एक दिन का विलम्ब है। भाई-भाई का युद्ध होगा। इसके सम्भावित दुष्परिणामों से कुन्ती का हृदय • व्याकुल हो उठता है। वह कर्ण के पास जाकर उससे पॉडु-पक्ष से लड़ने का निवेदन करती है। कर्ण कुन्ती को आश्वासन देता है कि उसके चार पुत्रों (अर्जुन को छोड़कर) को प्राणदान देगा। प्रतिज्ञा करता है कि युद्ध में अगर पार्थ-हत हुआ तो वह पाँडु-पक्ष में आ जायगा और कुन्ती-पुत्रों की संख्या पाँच-की-पाँच ही बनी रहेगी।
युद्ध आगे बढ़ता है। कर्ण के वाणों के प्रहार से पाण्डव-सेना अस्त-व्यस्त हो जाती | कृष्ण घटोत्कच का आह्वान करते हैं और स्थिति पलट जाती है। दुर्योधन के निवेदन पर कर्ण अपने ‘एकध्नी’ से जिसे अर्जुन के लिए उसने सुरक्षित रखा था-घटोत्कच का वध करता है। पांडव-दल में हाहाकार मच जाता है पर कृष्ण अतीव प्रसन्न हैं, पर कर्ण उदास है।
अन्ततः कर्ण अर्जुन का द्विरथ युद्ध प्रारंभ होता है। अन्ततः ईश्वरीय माया से कर्ण के रथ का चक्का रक्त कीच में फँस जाता है और निःशस्त्र कर्ण पर, जब वह चक्का निकालने में लगा है, वाण बरसाये जाते है। इस तरह निःशस्त्रावस्था में ही कर्ण को मृत्यु का आलिंगन करना पड़ता है।
दूसरों का दुःख हरण करने में ही अपना सुख मानने वाला कर्ण एक नितान्त पुरुषार्थी पुरुष है, क्योंकि ‘तन से समरशूर, मन से भावुक’ और ‘स्वभाव का दानी’ वह अपने ‘शील और पौरुष का अभिमानी था, जाति-गोत्र का नहीं। वह कहता है कि “पुरुषार्थ एक बस धन मेरा।” उसके मतानुसार “जाति-जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड”। वह गुरुभक्त है। उसके समान मित्र-धर्म का निर्वाह करनेवाला कोई नहीं। वह दृढ़प्रतिज्ञ तो है, किन्तु मिथ्यायशकामी नहीं है। वह तत्वज्ञानी है इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूँ, करता हूँ वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूँ।
आलोचना
रश्मिरथी के सप्तम सर्ग में तथाकथित आज के सभ्य मानव पर व्यंग्य किया गया है। आज की सभ्यता भौतिकता की भित्ति पर खड़ी है। मानव अर्थ, धन और विजय के झूले पर निरन्तर झूल रहा है। अमान्य साधनों को अंगीकृत करके भी उसे महान सहाय्य की प्राप्ति में किसी प्रकार का संकोच नहीं। उसके अन्तर का सौन्दर्य तो विनष्ट हो ही चुका, वाह्य सौन्दर्य जो प्रकृति में फैला है उसे देखने का भी उसे अवकाश नहीं। इसी ओर इंगित करता हुआ कवि कहता है कि सिर पर मानों ज्योति का घड़ा उठाये, कण-कण पर आलोक फैलाती मानों उषा चली आ रही है, किन्तु कौरवों और पाण्डवों की सेनाएँ रण की तैयारियों में व्यस्त हैं। उषा के इस महान सौन्दर्य को देखे कौन ? मनुष्य तो अपने को विराट ज्ञानी मान बैठा है। उसके भीतर की सौन्दर्य पिपासा मानो मर चुकी है। अतः प्राकृतिक दृश्यों में जैसे उसकी कोई रुचि न हो, उसे देखकर भी उसमें उल्लास का स्फुरण नहीं हो पाया।