Monday, May 13, 2024
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कर्ण-कृष्ण सम्वाद : भगवान श्री कृष्ण का कर्ण के साथ रश्मिरथी आधारित संवाद

कर्ण-कृष्ण सम्वाद के अंतर्गत पढ़िए भगवान श्री कृष्ण का कर्ण के साथ रश्मिरथी आधारित संवाद। पिछले भाग में आपने पढ़ा था परशुराम कर्ण संवाद जिसपर आपने काफी सारा प्यार दिया था।
जब पाण्डवों का बनवास पूरा हुआ तो वे नया तेज, नया उत्साह लिये वापस आये। उनकी ओर से मैत्री का सन्देश लेकर भगवान कृष्ण हस्तिनापुर आये। 
उन्होंने दुर्योधन को समझाना शुरू किया किन्तु कुछ लाभ नहीं हुआ। राज्य देने की बात तो दूर रही, कौरवों ने कृष्ण को बांधने की चेष्टा की। 
कृष्ण ने जब अपना भयंकर रूप दिखलाया और महाभारत के परिणाम की ओर संकेत किया तो सभी थर-थर काँपने लगे।

कर्ण-कृष्ण सम्वाद

भयंकर घोर गर्जन कर भगवान कृष्ण जब सभा छोड़ कर चले तो उनकी दृष्टि कर्ण पर गई। 
karn krishna samwaad
कर्ण कुछ सकुचाया सा, कुछ चकित और कुछ भरमाया सा कृष्ण से आ मिला। राजनीति कुशल भगवान कृष्ण ने बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ कर अपने रथ में बिठा लिया। 
भगवान का क्रोध समाप्त हो चुका था। उन्होंने कर्ण से बड़े दुःखी स्वर में कहा कि अब कोई उपाय शेष नहीं मालूम पड़ता, विवश होकर हमें युद्ध का आयोजन करना होगा और क्षत्रिय समुदाय की जान व्यर्थ में जायगी।

कृष्ण ने एक गूढ़ रहस्य को किया उजागर  

हाँ अब केवल एक उपाय बाकी बचा है। अभी भी युद्ध टल सकता है। तुम्हारी वीरता दुर्योधन की बहुत बड़ी शक्ति है। मैं तुम्हें एक रहस्य बताऊँ। जानते हो, तुम्ही कुन्ती के प्रथम लाल हो । 
हाय कर्ण! तुम सूत बनकर अनादर सहते हो। दुश्मन के घर पड़े हो। कैसी विचित्र बात है यह? पराये को अपना मानते हो और सहोदर को शत्रु समझते हो, लेकिन इसमें तुम्हारा दोष भी क्या है, भाई! तुम्हें यह ज्ञात ही कहाँ था? 
लेकिन मेरा कहा मान लो, अब मेरे साथ अपने पाँचों भाईया के पास चलो, चूँकि कुन्ती का तू ज्येष्ट पुत्र है और बल, बुद्धि तथा शील में तू ही श्रेष्ठ है अतएव तुम्हारा ही हमसब अभिषेक करेंगे। सभी भाई तुम्हारे अनुचर हैं। 
कितना सुहावना दृश्य होगा वह! अपने खोए लाल को पाकर कुन्ती फूली न समाएगी। कौरव स्वयं झुक जायँगे। युद्ध अनायास रूक जायगा। संसार से एक बहुत बड़ी विपत्ति टल जायगी। कौरवों की ओर से अलग होकर इस युद्ध को रोको, ताकि पृथ्वी का शोक समाप्त हो सके।

कर्ण ने कुंती के प्रति जताया रोस

कृष्ण की बातों को सुनकर कर्ण अधीर हो गया, किन्तु क्षण भर बाद वह भगवान से बोला कि मैं अपने पिता सूर्य से अपने जन्म की सारी कहानी सुन चुका हूँ। 
आपने जो बातें बतलाई है, वे बड़ी मायावी मालूम होती है। जब-जब मैं अपने जन्म की बात सोचता हूँ तो अपनी माँ के प्रति अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता है। 
कितनी कठोरहृदया है वह माँ जो अपने बच्चे को जीवित दफना देती है। 
वह नारी नहीं, नागिन है। हे कृष्ण! आप कृपया चुप ही रहिए। मैं माँ के विषय में कुछ भी नहीं सुनना चाहता। वह नारी नहीं, विकराल सर्पिनी है। 
उसने मेरे साथ शत्रुवत व्यवहार किया है, जिससे कितनी माताएँ बदनाम हुई। जो कुछ बीता है, सिर्फ मुझपर ही, वह तो कुमारी कन्या बनी रही। 
मैं सूत वंश में पलता था और जाति-गोत्र से हीन रोज अपमानित होता था। वह सब कुछ देखती थी, लेकिन छिपकर भी तो मेरी सुधि नहीं ले सकी। 
पाँच बेटों को पाकर कुन्ती गर्व में चूर रही और मुझसे उसने दूर ही रहना उचित समझा।
जिस पाप से कुन्ती मुझसे दूर हटी थी वह पाप तो मुझमें अबतक वर्तमान है। क्या कुन्ती का हृदय सचमुच सुख चाहता है। वह तो पाण्डवों की विजय के लिए विकल है। 
जब मैं प्रसिद्ध धनुर्धर हुआ तो वे भी मेरे हितैषी ही बन रहे हैं जो कल तक मेरे प्रति निर्दयी थे। 
लेकिन केशव! यह होने को नहीं। मेरी जननी राधा है। जब मैं धूल में पड़ा था तो किसका स्नेह पाकर बड़ा हुआ, किसने मुझे सम्मान दिया। जब मैं भरी सभा में अपमानित हो रहा था तो दुर्योधन ही मेरे समीप प्रेम लेकर आया था। 
कुन्ती ने तो केवल जन्म दिया है, माँ का सारा काम तो राधा ने किया है, लेकिन इसपर असली जीवन तो दुर्योधन ने दिया। इसलिए वे सहोदर भाई से बढ़कर हैं। 
उसने मुझ रंक को राजा बना दिया, यश दिया, मान दिया, उसने मुझे प्रतिष्ठा दी। इसलिए मेरा तन, मन, धन सभी दुर्योधन पर न्योछावर हो चुका है। 
आपने सच कहा है कि उस पर मेरा अटूट विश्वास है। यह भी ठीक है कि मेरे बल पर महाभारत का आयोजन हुआ है। अब आपही कहें दुर्योधन को धोखा देकर मैं पाप का भागी बनूँ? इसलिए हे कृष्ण
रहा साथ, सदा खेला-खाया, सौभाग्य सुयश उससे पाया, 
अब जब विपत्तियाँ अनेको हैं, घनघोर प्रलय छाने को है,
तज उसे, भाग यदि जाऊंगा, कायर कृतघ्न कहलाऊंगा। 
मैं भी कुन्ती का एक लाल हूँ इसपर कौन विश्वास करेगा, केशव? संसार मुझे यही धिक्कारेगा कि जब राज्य का प्रलोभन मिला तो पापी कर्ण तुरत बदल गया। 
इसके अतिरिक्त एक बात और है। पाण्डव-पक्ष में सहसा मेरे मिल जाने में अर्जुन को भी कलंक लगेगा। सब लोग यही कहेंगे कि अर्जुन कायर है। उसने डरकर ही कर्ण से सन्धि कर ली है। 
मेरे तप, त्याग, शील, व्यय, योग, दान, पुण्य सभी मिट्टी मिल जायेंगे, केशव! मै कहीं मुँह दिखलाने योग्य नहीं रह जाऊंगा। यह कहानी जो आपने आज सुनाई है यदि पहले सुनायी होती तो फिर कर्ण दुर्योधन को कैसे मिलता। 
केशव, आप कुल और यश की क्या बात करते हैं? विक्रमी पुरुष अपने पुरखों का नाम लेकर यश नहीं पाते। सम्मान तो उसके पुरुषार्थ पर मिलता है। 
कुल ने मुझे फेंक दिया था और मैने हिम्मत से काम लिया। अब चकित और भ्रमित होकर वंश मुझे खोजने आया है। लेकिन मैं वापस नहीं लौट सकता। 

अपनी मिर्त्यु या दुर्योधन के विजय का लिया संकल्प

या तो महाभारत में दुर्योधन की विजय होगी अथवा अर्जुन के हाथों कर्ण की मृत्यु इसके अतिरिक्त मेरी तीसरी गति नहीं। मैं मैत्री की सुखद और शीतल छाया नहीं छोड़ सकता।
हे केशव! अब देर न करें। महाभारत हो जाने दें। मेरे ऊपर दुर्योधन का ऋण है, उसे चुकाना है। इसलिए महाभारत की लड़ाई मुझे वह अवसर प्रदान करेगी। 
हाँ, किन्तु आपसे हमारी एक प्रार्थना है। मेरे जन्म की कहानी आप गुप्त ही रहने दें। जैसे भी हो आप इसे दबाए रखिए। इसे युधिष्ठिर न जानने पायें। 
वे यदि इसे जान जायेंगे तो सिहासन को देगे। साम्राज्य नहीं लेंगे, सारी सम्पत्ति मुझे दे देंगे। और मैं मित्रता के अधीन हूँ। 
मैं स्वयं उसे रख नहीं सकूँगा, सब कुछ दुर्योधन को दे दूँगा। इसलिए बेचारे पाण्डव दुःखी ही बने रह जायेंगे। अच्छा केशव मुझे आज्ञा दीजिए मैं चला। कर्ण यह कहते हुए रथ से उतर कर चल पड़ा

चलते-चलते कृष्ण ने की प्रशंसा

जय हो दिनेश नभ के बिहरें, भूतल में दिव्य प्रकाश भरे

कर्ण के जाने के बाद कृष्ण ने मन ही मन उसकी भूरि-भूरि सराहना की। धन्य हो कर्ण! संसार में तुम्हारे समान अनन्य मित्र दूसरा नहीं। तुम कुरूपति के ही प्राण नहीं, मानवता के महान भूषण हो।
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