Sunday, April 28, 2024
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पल्लवन क्या है? इसके सामान्य नियम एवं पल्लवन और संक्षेपण के बिच अंतर

जानिए पल्लवन क्या है एवं इसके सामान्य नियमों । इस ब्लॉग पोस्ट के जरिये हम पल्लवन का स्वरूप स्पष्ट करेंगे।

साथ ही साथ पल्लवन एवं संक्षेपण में अन्तर स्पष्ट करेने का प्रयास करेंगे। 

pallawan kya hai

पल्लवन क्या है ?

पल्लवन वह रचना रूप है जिसमें व्यास-शैली के माध्यम से दी गई पंक्तियों के अर्थ-तत्त्व को स्पष्ट किया जाता है।पल्लवन का अर्थ पत्ता और विस्तार दोनों है, इसलिए पल्लवन बीज को वृक्ष या पत्तों में बदलने की प्रक्रिया मात्र है। यह संक्षेपण के ठीक विपरीत होता है। 

संक्षेपण में हम प्रस्तुत पंक्तियों को छोटा कर लगभग एक तिहाई भाग में एक निश्चित संख्या के तहत रखते हैं, जबकि पल्लवन में पंक्तियों के गूढ़ अर्थ को सरलीकृत ढंग से विस्तार दिया जाता है। इसका सीधा अर्थ है फैलाव। 

अर्थात् एक ऐसा विस्तार देना जिससे पंक्तियों का गूढ तत्त्व स्पष्ट हो जाए। 

इसको स्पष्ट करते हुए डॉ० शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने लिखा है, 

किसी बड़े जलपात्र में या नदी-तालाब में तेल की एक बूंद डालने पर क्या प्रतिक्रिया होती है, तेल की बूँद फैल जाती है और सूर्य किरणों के प्रकाश में उसके विविध रंग साफ-साफ दिखाई पड़ने लगते हैं। ‘पल्लवन’ की प्रक्रिया बहुत कुछ ऐसी ही है।

– डॉ० शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव

मूल रूप से यदि कहा जाए तो पल्लवन एक प्रकार से विस्तृत व्याख्यान है, किन्तु जहाँ व्याख्या के लिए प्रसंग-निर्देश, लेखक का नाम आदि आवश्यक है, वहीं पल्लवन में इन सबकी कोई आवश्यकता नहीं होती। 

पल्लवनकार को इन सबसे कोई वास्ता नहीं कि पंक्ति किसकी है, कहाँ से ली गई है और रचनाकार कौन है। पल्लवन में तो मात्र दी गई पंक्तियों के विचारों का बीज ढूंढा जाता है।

पल्लवन वास्तव में एक कला है जिसमें किसी सूक्ति अथवा लोकोक्ति आदि को ऐसे प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जाता है कि उसका भाव स्पष्ट होने के साथ पाठक के मन-मस्तिष्क पर भी उसका वांछित प्रभाव पड़ता है, पाठक अथवा श्रोता उससे अभिभूत हो जाता है। 

यही पल्लवन का मुख्य उद्देश्य भी होता है। रोचकता, भाव प्रवणता और लालित्य पल्लवन के विशेषण गुण होते हैं। इसका विस्तार 150 से लेकर 200-250 शब्दों तक हो सकता है।

पल्लवन की विशेषताएँ

सामान्यत: पल्लवन की निम्नलिखित विशेषताएँ मानी जाती है यथार्थ-पल्लवन में यथार्थ से अभिप्राय है पल्लवन योग्य विषय या जीवन सत्यों से संबद्ध होना। 

उदाहरण के लिए ‘मधुरवचन है औषधि कटुकवचन है तीर।’ में मधुर और कटु भाषण के परस्पर विपरीत प्रभाव का भाव है, जो जीवन और जगत का परम सत्य है। 

इसी जीवन सत्य अथवा यथार्थ को प्रभावी प्रमाण आदि से पुष्ट करते हुए थोड़े विस्तार से प्रतिपादित कर देना पल्लवन है।

कल्पनाशीलता : पल्लवन के लिए लेखक का कल्पनाशील होना आवश्यक है। नवीन कल्पना के उपयोग से ही पल्लवन में नयापन आता है, यही पल्लवन लेखक की सृजनशीलता है।

मौलिकता : मौलिकता से अभिप्राय प्रस्तुती का वैशिष्ट्य होता है। सामान्य सी बात को विशिष्ट बना देना पल्लवन लेखन की मौलिक प्रतिभा का द्योतक है।

सुसंवद्धता : पल्लवन के लिए आवश्यक है कि लेखक मूल भाव या विचार सूत्र से भटककर अन्यत्र न चला जाए। साथ ही वह जो नया भाव-विचार, लोक जीवन या इतिहास आदि से जो उदाहरण आदि प्रस्तुत करे, वे सब सीधे-सीधे उसी केन्द्रीय भाव से जुड़े हुए होने चाहिए और वे भी बिखरे हुए न हों, बल्कि उन सब से एकान्विति हो ।

स्वत: पूर्णता पल्लवन में लेखक की अपनी कल्पना, चिन्तनशीलता के विविध अनुभवों का संबद्ध एकीकरण होता है। ये अनुभव जगत-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंध रखते हैं। आवश्यकता इस बात की होती है कि इन सबको सुनियोजित ढंग से एकसूत्र में पिरोकर एक माला बना दी जाए, बीच में कोई मनका गायब दिखाई न दे।

प्रस्तुतीकरण : पल्लवन की वास्तविक सफलता उसके प्रस्तुतीकरण-भाषा-शैली और अभिव्यंजना-शक्ति में निहित होती है। 

शैली लेखक के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है, स्वच्छंद, उन्मुक्त, लेकिन विषय से जुड़ी शैली, भाषा का लालित्य, व्यंग्य-विनोद, मुहावरे और कहावते, नए उपमान आदि भाषा-शैलीगत विशेषताएँ पल्लवन को जीवंत और प्रभावशाली बनाते हैं। 

पल्लवन-लेखन के लिए आवश्यक है कि वह सूत्रवाक्य अथवा विषय को पहले भली प्रकार आत्मसात कर ले और मानसिक स्तर पर पहले अच्छी तरह यह तय कर ले कि वह सूत्र-कथन से सहमत है अथवा नहीं, उसे उस विषय कासमर्थन करना है या विरोध। 

उसी के अनुरूप उसे तर्क एवं उदाहरण आदि का संकलन करना चाहिए।

पल्लवन एवं संक्षेपण में अन्तर

पल्लवन संक्षेपण का विलोम नहीं है। संक्षेपण में एक कथन के विस्तार को संक्षेप में समेटा जाता है। उसमें वाक्यों का भाषा-संरचना का संक्षेपण होता है, विचारों का नहीं, विचार तो उसमें एक ही रहता है। 

इसके विपरीत पल्लवन केवल वाक्य अथवा शब्द विस्तार नहीं है, उसमें मूल से संबद्ध और उसे पुष्ट करने वाले नए भाव, विचार एवं उद्धरण आदि का समायोजन भी कर लिया जाता है।

इसी प्रकार ‘पल्लवन’ स्पष्टीकरण और निबंध के समीप होते हुए भी उनसे भिन्न है। 

स्पष्टीकरण में भी किसी नए भाव-विचार के लिए जगह नहीं होती। उसमें किसी विशिष्ट क्लिष्ट अथवा दुर्बोध विषय को सरल बनाकर-भाषागत सरलता के अतिरिक्त व्यक्त विचार एवं भाव का व्याख्या विश्लेषण होता है। 

अधिक से अधिक किसी उदाहरण से स्पष्टीकरण कर दिया जाता है, उक्ति में छिपे भाव को स्पष्ट करना ही प्रयोजन होता है।

निबंध के समीप होते हुए भी पल्लवन उससे भिन्न होता है। निबंध का आरंभ भूमिका आदि से होता है, अनुकूल-प्रतिकूल तर्क-वितर्क और विभिन्न पक्षों का प्रतिपादन करके निष्कर्ष की स्थापना होती है। 

निबंध में कई गौण महत्व की ओर प्रत्यक्ष रूप से असंबद्ध बातों का स्थान मिल जाता है। इसके विपरीत पल्लवन में पक्ष-विपक्ष और विचार वैविध्य के लिए स्थान नहीं होता, उसके किसी एक ही विचार या भाव के इर्द-गिर्द रहकर उदाहरण उद्धरण तथा दृष्टांतों से उसका प्रतिपादन किया जाता है। 

इससे मूल उक्ति में निहित गूढ एवं सूक्ष्म अथवा विचार स्वतः स्पष्ट होता चला जाता है।

पल्लवन कैसे लिखें? या, पल्लवन के नियम

1. सबसे पहले दिए गए उद्धरण को बार-बार पढे। जबतक पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट न हो जाए तबतक पल्लवन लिखना प्रारम्भ न करें क्योंकि बिना अर्थ समझे यदि लेखन करेंगे तो ऐसा संभव है कि मूल विचार स्पष्ट न हो सके। 

2. अर्थ समझ लेने के बाद उद्धरण के मुख्य विचारों को चिन्हित कर लें। ऐसा करने से उसमें निहित कोई भी विचार छूटने नहीं पाएगा।

3. उसमें शब्दों की गणना आवश्यक नहीं है, क्योंकि अबतक यह सुनिश्चित नहीं हो। सका है कि पल्लवन के लिए दी गई पंक्तियों में शब्द कितने गुने बढ़ाए जाएँ। इस संबंध में लघुतम और अधिकतम की सीमा निर्धारित की जा सकती है। पल्लवित पंक्तियाँ मूलकी पंक्तियों की तिगुनी से कम नहीं हो, और दस गुनी से ज्यादा भी नहीं हो। इस बीच कहाँ रुकना है, यह पल्लवन के लिए दी गई पंक्ति की सारगर्भिता और क्लिष्टता पर निर्भर है।

4. पल्लवन को भी अन्तिम रूप देने से पहले उसका प्रारूप बना लेना चाहिए। प्रारूप को यदि निर्मम तटस्थता से देखा जाए, तो उसमें कॉट-छाँट की गुंजाइश भी नजर आ सकती है और जोड़-तोड़ की भी। यद्यपि अपने ही लेखन को कॉटना-छाँटना एक कठिन काम है, परन्तु उसका अभ्यास जरूरी है।

5. पल्लवन में शीर्षक नहीं देना चाहिए। 

6. पल्लवन में प्रश्नवाचकों का प्रचुर प्रयोग करें, इससे भी शब्द-विस्तार होता है।

7. पल्लवन करते समय मूल के विचारों का विस्तार करना होता है, मंडन करना होता है, खंडन नहीं।

8. पल्लवन में दूसरों की पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती है, यदि उनसे विषय पर प्रकाश पड़ता हो।

9. पल्लवन यथासंभव वार्तालाप शैली में लिखा जाना चाहिए।

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